Friday, January 1, 2010

प्रेम, अकेलापन और एकांत

"जब से मैं प्रेम में हूं, मैं अकेलापन और जरूरतमंद महसूस नहीं करता। इसी समय में एक नये तरह का एकांत महसूस करता हूं। यह ऐसे लगता है जैसे कि पोषित कर रहा है। क्या हो रहा है?'प्रेम हमेशा एकांत लाता है। अकेलापन हमेशा प्रेम लाता है। जब तुम प्रेम में हो, तुम अकेले नहीं हो सकते। लेकिन जब तुम प्रेम में होते हो, तुम्हें अकेला होना पड़ेगा। अकेलापन नकारात्मक दशा है। अकेलेपन का मतलब होता है कि तुम किसी दूसरे की लालसा रखते हो। अकेलेपन का मतलब होता है कि तुम अंधेरे में, उदासी में, विषाद में हो। अकेलेपन का मतलब होता है कि तुम भयभीत हो। अकेलेपन का मतलब होता है कि तुम अकेले छूट गए ऐसा महसूस करते हो। अकेलेपन का मतलब होता है कि किसी को तुम्हारी जरूरत नहीं है। यह पीड़ा देता है। एकांत फूल की तरह होता है। ये अलग ही बात है। अकेलापन घाव है जो कैंसर हो सकता है। किसी दूसरी बीमारी की तुलना में बहुत अधिक लोग अकेलेपन के कारण मरते है। दुनिया अकेले लोगों से भरी है, और उनके अकेलेपन के कारण वे सब तरह की मूर्खताएं किए चले जाते हैं ताकि किसी तरह से वह घाव, वह खालीपन, वह निर्जनता, वह नकारात्मकता भर जाए।लोग दूसरों से संबंधित हुए चले जाते हैं, लेकिन वे दोनों अकेले हैं इसलिए रिश्ता संभव नहीं होता। रिश्ता सिर्फ ऊर्जा की प्रचुरता से संभव होता है, न कि जरूरत से। यदि एक व्यक्ति जरूरतमंद है और दूसरा व्यक्ति भी जरूरतमंद है, तब दोनों एक-दूसरे का शोषण करने की कोशिश करेंगे। शोषण का रिश्ता होगा, न कि प्रेम का, न कि करुणा का। यह मित्रता नहीं होगी। यह एक तरह की शत्रुता होगी-बहुत कड़वी, लेकिन शक्कर चढ़ी हुई। और देर-सबेर शक्कर उतर जाती है। हनीमून के पूरा होते-होते शक्कर जा चुकी और सब कड़वा बचता है। अब वे फंस गए।पहले वे अकेले अकेलापन महसूस करते थे, अब वे साथ-साथ अकेले हैं-जो और भी अधिक कष्ट देता है। जरा देखो पति और पत्नी कमरे में बैठे हुए, दोनों अकेले। सतह पर साथ, गहरे में अकेले। पति अपने स्वयं के अकेलपन में खोया हुआ, पत्नी अपने स्वयं के अकेलेपन में खोई हुई। दुनिया की सबसे अधिक दुखदायी चीज देखनी हो तो वह है दो प्रेमी, एक जोड़ा, और दोनों अकेले-दुनिया की सबसे दुखदायी चीज!एकांत पूरी अलग ही बात है। एकांत तुम्हारे हृदय में कमल का खिलना है। एकांत विधायक है, एकांत स्वास्थ्य है। यह तो स्वयं के होने का आनंद है। यह तो स्वयं के अपने अवकाश में होने का आनंद है। जब तुम प्रेम में होते हो, तुम एकांत महसूस करते हो। एकांत सुंदर है, एकांत आनंद है। लेकिन सिर्फ प्रेमी इसे महसूस कर सकते हैं, क्योंकि सिर्फ प्रेम तुम्हें अकेले होने का साहस देता है, सिर्फ प्रेम अकेले होने का संदर्भ पैदा करता है। सिर्फ प्रेम तुम्हें इतना गहनता से तृप्त करता है कि तुम्हें किसी दूसरे की जरूरत नहीं होती-तुम अकेले हो सकते हो। प्रेम तुम्हें इतना केंद्रित कर देता है कि तुम अकेले हो आनंदित हो सकते हो। अच्छा है कि इसे समझो, क्योंकि यदि प्रेमी एक-दूसरे की स्पेस को, अकेला होने की जरूरत को नही स्वीकारेंगे तो प्रेम नष्ट हो जाएगा। एकांत के द्वारा प्रेम ताजी ऊर्जा पाता है, ताजा रस। जब तुम अकेले हो, तुम उस बिंदु तक ऊर्जा इकट्ठी करते हो जहां से यह प्रवाहित हो जाए। अकेले में तुम ऊर्जा इकट्ठी करते हो। ऊर्जा जीवन है और ऊर्जा आनंद है, और ऊर्जा प्रेम है और ऊर्जा नृत्य है और ऊर्जा उत्सव है। जब तुम प्रेम में होते हो, अकेले होने की बहुत बड़ी जरूरत महसूस होती है। जब अकेले होते हो, तब बांटने की इच्छा पैदा होती है। इस समस्वरता को देखो: जब प्रेम में हो, तुम अकेला होना चाहते हो; जब अकेले हो, शीघ" ही तुम प्रेम में होना चाहते हो। प्रेमी करीब आते हैं और दूर जाते हैं, करीब आते हैं और दूर जाते हैं-वहां एक समस्वरता है। दूर जाना प्रेम के विपरीत नहीं है; दूर जाना बस तुम्हारा वापस एकांत पाना है-इसकी सुंदरता है, और इसका आनंद है। लेकिन जब तुम आनंद से भरे हो, बांटने की आत्यंतिक, आवश्यक जरूरत पैदा होती है। आनंद तुम से बड़ा है, यह तुम्हारे द्वारा समा नहीं सकता। यह बाढ़ है! तुम इसे समा नहीं सकते; तुम्हें लोगों को बांटने के लिए खोजना होगा। प्रेम और अकेलेपन के बीच नाते को देखो। दोनों का आनंद लो। दोनों में से एक को कभी मत चुनो, क्योंकि यदि तुम एक को चुनते हो तो दोनों मर जाते हैं। दोनों को घटने दो। जब एकांत घटे, इसमें चले जाओ; जब प्रेम घटे, इसमें चले जाओ।एकांत श्वास का भीतर जाना है, प्रेम श्वास का बाहर निकलना है। यदि तुम एक को रोकते हो, तुम मर जाओगे। श्वास समग्र प्रक्रिया है: भीतर आती श्वास आवश्यकता है ऐसे ही जैसे कि बाहर जाती श्वास। कभी मत चुनो! चुनावरहित इसे होने दो, और इसके साथ जाओ जहां कहीं श्वास जा रही है। एकांत महसूस करो और प्रेम महसूस करो, और कभी इन दो के बीच द्वंद्व मत पैदा करो। इन दोनों के द्वारा लयबद्धता पैदा करो, और तुम्हारे पास समृद्धता होगी जो कि बहुत दुर्लभ होती है।

Tuesday, November 17, 2009

प्यार का सच

आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो
जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना
उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी।
और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो
सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में
से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा
कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है।
सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता
है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है।
सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय
इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो
जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम
का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को
प्रेम से भरें।
आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में
जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर
जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको
प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे
अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम
केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे
चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है,
उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे।
और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है
जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को
फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है।
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे
आटा खिलाएंगे, फिर...।
और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा
प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे!
और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।
दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के
पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था
बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे
होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता
है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य
नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया।
अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे
प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही--अदभुत जगत की व्यवस्था है--उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत
अनुभव करेंगे--जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।

Thursday, November 12, 2009

झूठी मुस्कराहट

अवसाद का अर्थ है कि किसी कारणवश क्रोध तुम्हारे भीतर नकारात्मक रूप में विद्यमान है: अवसाद क्रोध का नकारात्मक रूप है। अंग्रेज़ी का शब्द डिप्रैशन अर्थपूर्ण है- इसका अर्थ है कि कुछ प्रैस किया गया है, दबाया गया है; डिप्रैस्ड का यही अर्थ है। तुम भीतर कुछ दबा रहे हो, और जब क्रोध को बहुत अधिक दबाया जाता है तो वह उदासी बन जाता है। उदासी क्रोधित होने का नकारात्मक रूप है, क्रोधित होने का स्त्रैण रूप।यदि तुम इसपर से दबाव हटा लो तो यह क्रोध बन जायेगा। तुम अपने बचपन से कुछ चीजों के बारे में क्रोधित रहे होगे, लेकिन उन्हें व्यक्त न कर पाये होगे, इसलिये है यह डिप्रैशन। इसे समझने का प्रयास करो! और समस्या यह है कि डिप्रैशन को सुलझाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह वास्तविक समस्या नहीं है। वास्तविक समस्या है क्रोध- और तुम डिप्रैशन की निंदा करे चले जाते हो, तो तुम परछाइंयों से लड़ रहे हो।पहले यह देखो कि तुम डिप्रैस्ड क्यों हो… इसे गहरे में देखो और तुम क्रोध को पाओगे। तुम्हारे भीतर बहुत क्रोध भरा है…संभव है मां के प्रति हो, पिता के प्रति हो, संसार के प्रति हो, तुम्हारे अपने प्रति हो, लेकिन सवाल यह नहीं है। तुम भीतर क्रोध से भरे हो, और बचपन से ही तुम मुस्कराने का प्रयत्न करते रहे हो, ताकि क्रोधित न हो सको। यह सही नहीं है। तुम्हे यह सिखाया गया है और तुमने इसे ठीक से सीख लिया है। तो बाहर तुम प्रसन्न दिखाई देते हो, बाहर से तुम मुस्कराते चले जाते हो, और यह सब मुस्कराहटें झूठी हैं। भीतर गहरे में कहीं भारी क्रोध छुपा रखा है तुमने। अब तुम इसे व्यक्त तो कर नहीं पाते इसलिये इसपर बैठे हो- इसी का नाम डिप्रैशन है; तब तुम डिप्रैस्ड महसूस करते हो। इसे बहने दो, क्रोध को आने दो। एक बार क्रोध आ गया तो डिप्रैशन तिरोहित हो जायेगा। क्या तुमने इसे कभी देखा नहीं, जाना नहीं? – कि कई बार वास्तविक क्रोध के पश्चात व्यक्ति बहुत अच्छा महसूस करता है, बहुत जीवंत? घर में कुछ करना शुरू करो। हूं? रोजाना क्रोध-ध्यान करो…बीस मिनट बहुत होंगे। तीसरे दिन के बाद तुम इस व्यायाम को इतना पसंद करोगे, कि तुम इसकी प्रतीक्षा न कर सकोगे। यह तुम्हें इतना हल्का कर देगा, और तुम देखोगे कि तुम्हारा डिप्रैशन तिरोहित हो रहा है। पहली बार तुम सचमुच मुस्कुराओगे…क्योंकि इस डिप्रैशन के साथ तुम मुस्कुरा नहीं सकते, बस ढोंग कर सकते हो।
व्यक्ति मुस्कराहटों के बिना नहीं जी सकता, इसलिये उसे ढोंग करना पड़ता है, लेकिन एक झूठी मुस्कराहट बहुत पीड़ा दे जाती है… यह हमें प्रसन्न नहीं करती, यह सिर्फ हमें यह स्मरण दिलाती है कि हम कितने दुखी हैं।

Tuesday, October 13, 2009

स्वार्थी बनो और देखो

हमें दूसरों को प्रेम करने के बारे में तो मालूम है, परंतु स्वयं को? क्या वह दूसरे का काम है? ओशो का स्पष्ट उत्तर है,'नहीं'; प्रेम तुमसे ही शुरू होता है और स्वयं से प्रेम करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि तुम कौन हो।

स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदा हुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी ही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे।

कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।

मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है।

तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।

इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए।

अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?'
निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!

तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।

इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ।
फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।'

क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?

और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो!

Saturday, August 29, 2009

Ab Ke Hum Bichhray To Shayad

Ab Ke Hum Bichhray To Shayad Kabhi Khwabon Mein Milen
Jis Tarah Sookhay Hue Phool Kitabon Mein Milen

Dhoond Ujray Hue Logon Mein Wafa K Moti
Ye Khazanay Tujhe Mumkin Hai Kharabon Mein Milen

Gham-E-Duniya Bhi Gham-E-Yaar Mein Shaamil Kar Lo
Nasha Barhta Hai Shar?ben Jo Shar?bon Mein Milen

Tu Khuda Hai Na Mera Ishq Farishton Jaisa
Dono Insaan Hain To Kyun Itnay Hijaabon Mein Milen

Aaj Hum Daar Pe Khenchay Gaye Jin Baaton Par
Kya Ajab, Kal Vo Zamaanay Ko Nisaabon Mein Milen

Ab Na Vo Main Hun, Na Tu Hai, Na Vo Maazi Hai Faraz
Jaise Do Shakhs Tamanna K Saraabon Mein Milen

Saturday, August 22, 2009

आज की दुनिया

कि एक दिन राह में मैंने कहीं एक लाश थी देखी ,
लगा मुझको कहीं पर मैंने इसकी शक्ल है देखी ,
कि देखा ध्यान से उसको तो मेरी अक्ल चकराई ,
पड़ा जो राह में वो तो ख़ुद मैं ही हूँ भाई ,
न जाने कब कहा कैसे किधर को चल बसा था मैं ,
कई लोगों के बीच देखो आज आ के फंसा था मैं ,
कि मुझको देख कर सब लोग कुछ तो थे बोले ,
कई ने कुछ तो कई ने मेरे सारे राज थे खोले ,
कि मुझको देख कर एक यार बुक्के फाड़ के रोया ,
मैं समझा कि चलो ये ही मेरा एक यार है गोया ,
मगर वो था फरेबी दुष्ट और था महा पापी ,
वो बोला देख कर मुझको कि कुछ दिन बाद मर जाते ,
जो पैसे कल ही ले गए थे वो तो कुछ खर्च कर जाते ,
जो भी कर्जा लिया था तूने वो तुझको माफ़ करता हूँ ,
ये घड़ी , अंगूठी और चेन लेकर मैं हिसाब साफ़ करता हूँ ,
कि देख कर जेबों के पैसों को मेरे एक यार ये बोले ,
कि हाय छोड़ कर वादा अधूरा मर गया भोले ,
कि इन पैसों से आज तुझे मेरा वादा निभाना था ,
पहले सनीमा फ़िर कलब फ़िर बार जाना था ,
कि चल तेरी खातिर मैं तेरा वादा निभाऊंगा ,
कि तेरे नाम की दारु भी मैं ख़ुद ही चढाऊंगा ,
कि ये कह कर उन्होंने जेबों के सारे पैसे थे मारे ,
हम तो बस ये ही सोंचा किए क्या येही दोस्त थे सारे ,
"अभि" देखो जहाँ में आज तो बस ये ही ये अब है ,
नही इन्सान की कीमत यहाँ तो लाश ही सब है ।

तजुर्बा

मै उठूं तो रंग लायें चर्चाओ के सिलसिले,
लोग इतना कहे आदमी अच्छा न था !
लोग इस अंदाज में देते है दुनिया कि मिसाल,
मै तो जैसे तजुरबो के दौर से गुजरा न था !