Sunday, August 25, 2013

Nayi Jindagi

अभी अभी वापसी की है मैंने
कुछ लिखने की बानगी की है मैंने

Wednesday, August 3, 2011

कुछ नया

आज फिर एक दिन चला गया और बीते हुए वक्त की कुछ ऐसी यादें दे गया जो शायेद कभी भुलाई न जा सकेंगी

Friday, March 18, 2011

वक्त

एक बार एक बहुत ही सफल व्यक्ति की डायरी हाथ लगी उनके इस दुनिया से चले जाने के बाद ।
डायरी जब वो ग्यारह बारह साल के रहे होंगे तब से लिखी गयी थी ।
पेज नम्बर ०१ पर लिखा गया था " पतंग उड़ानी थी फिर उड़ा लूँगा होमवर्क निपटा लूं पहले "
पेज नम्बर ०२ " सारे बच्चे बारिश में खेल रहे हैं मैं भी खेलना चाहता हूँ पर परीछा सर पर है "
पेज नम्बर ११४ " दोस्तों के साथ पिक्चर जाने का प्लान बना था पर जा नहीं पाया अस्सिंमेंट पूरे करने थे "
पेज नम्बर १३२ "राखी पर दीदी के पास जाना था पर ऑफिस के काम में फंसा हूँ "
पेज नम्बर १५५ " बीबी को घुमाने ले जाना था पर इस साल नहीं हो पायेगा "
पेज १८५ " आज कौशिकी ने साथ खेलने की जिद करी अगले रविवार जरूर खेलूँगा "
पेज २४० " कुछ दिनों से सोंच रहा था की गावं जा कर माँ बाबूजी से मिल आऊँ , अगले साल चला जाऊँगा "
पेज ३०२ " आजकल तबियत कुछ खराब चल रही है सोंच रहा हूँ डाक्टर को दिखा आऊँ , अगले हफ्ते जाऊँगा पक्का "..........................................
आगे के पन्ने खाली हैं .....................
जिंदगी में एक बार तो सब लौट सकता है पर गुजरा हुआ वक्त नहीं । ...

Friday, November 19, 2010

कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गज भर भी न वसन ढंकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

मुखड़ा सटक गया घुटनों में
अटक कंठ में प्राण राह गए
सिकुड़ गया तन जैसे मन में
सिकुड़ सब अरमान राह गए

मिली आग लेकिन न भाग्य सा
जलने को जुट पाया इंधन
दांतों के मिस प्रकट हो गया
मेरा कठिन शिशिर का क्रंदन

किन्तु अचानक लगा की यह
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

श्वेत मांग सी विधवा की
चदरी कोई इन्सान दे गया
और दूसरा बिन मांगे ही
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया

वस्त्र मिल गया ठण्ड मिट गयी
धन्य हुआ मानव का चोला
कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

कहते मरे रहीम न लेकिन
पेट पीठ मिल एक हो सके
नहीं अश्रु से आज तलक हम
अमिट छुधा का दाग धो सके

खाने को कुछ नहीं मिला सो
खाने को गम मिले हजारों
श्री संपन्न नगर ग्रामों में
भूखे बेदम मिले हजारों

दाने दाने पर पाने वाले
का सुनता नाम लिखा है
किन्तु देखता हूँ इन पर
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है

दास मलूका से पूंछो क्या
" सबके दाता राम" लिखा है ?
या की गरीबों की खातिर
भूखों मरना अंजाम लिखा है ?

किन्तु अचानक लगा के यह
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

जुटा जुटा कर रेजगारियाँ
भोज मनाने बंधू चल पड़े
जहाँ न थी कल थी बूँद दिखती
वहां उमड़ते सिन्धु चल पड़े

निर्धन के घर हाथ सुखाते
नहीं किसी का अंतर डोला
कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

घरवालों के आस पास से
मैंने केवल दो कण माँगा
किन्तु मिला कुछ नहीं और
में बे पानी ही मरा अभागा

जीते जी तो नल के जल से
भी अभिषेक किया न किसी ने
रहा अपेछित सदा निराद्रत
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने

बाप तरसता रहा की बेटा
श्रद्धा के दो घूँट पिला दे
स्नेह लता जो सूख रही है
जरा प्यार से उसे जिला दे

कहाँ श्रवन ? युग के दशरथ ने
एक एक को मार गिराया
मन मृग भोला रहा भटकता
निकली सब कुछ लू की माया ॥








लीक पर वे चलें जिनके

लीक पर वो चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बनें ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं

Thursday, February 18, 2010

समाज

समाज को मतलब, आपका जो चेहरा प्रकट होता है, उससे है; आपकी जो आत्मा अप्रकट रह जाती है, उससे नहीं है। इसलिए समाज इसकी चिंता ही नहीं करता कि भीतर आप कैसे हैं। समाज कहता है, बाहर आप कैसे हैं, बस हमारी बात पूरी हो जाती है। बाहर आप ऐसा व्यवहार करें जो समाज के लिए अनुकूल है, समाज के जीवन के लिए सुविधापूर्ण है, सबके साथ रहने में व्यवस्था लाता है, अव्यवस्था नहीं लाता। समाज की चिंता आपके आचरण से है। धर्म की चिंता आपकी आत्मा से है। इसलिए समाज इतना फिक्र भर कर लेता है कि आदमी का बाह्य रूप ठीक हो जाए, बस इसके बाद फिक्र छोड़ देता है। बाह्य रूप ठीक करने के लिए वह जो उपाय लाता है, वे उपाय भय के हैं। या तो पुलिस है, अदालत है, कानून है, या पाप-पुण्य का डर है, स्वर्ग है, नरक है। ये सारे भय के रूप उपयोग में लाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि समाज के द्वारा आचरण की जो व्यवस्था है, वह भय-आधारित है और बाहर तक समाप्त हो जाती है। परिणाम में समाज केवल व्यक्ति को पाखंडी बना पाता है या अनैतिक, नैतिक कभी नहीं। पाखंडी या अनैतिक। पाखंडी इस अर्थों में कि भीतर व्यक्ति कुछ होता है, बाहर कुछ हो जाता है। और जो व्यक्ति पाखंडी हो गया, उसके धार्मिक होने की संभावना अनैतिक व्यक्ति से भी कम हो जाती है। इसे समझ लेना जरूरी है। समाज की दृष्टि में वह आदृत होगा, साधु होगा, संन्यासी होगा; लेकिन पाखंडी हो जाने के कारण वह अनैतिक व्यक्ति से भी बुरी दशा में पड़ गया है। क्योंकि अनैतिक व्यक्ति कम से कम सीधा है, सरल है, साफ है। उसके भीतर गाली उठती है तो गाली देता है और क्रोध आता है तो क्रोध करता है। वह आदमी स्पष्ट है, स्पांटेनियस है एक अर्थों में। सहज है, जैसा है, वैसा है। बाहर और भीतर में उसके फर्क नहीं है। परम ज्ञानी के भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता। परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर होता है। अज्ञानी जैसा बाहर होता है, वैसा ही भीतर होता है। बीच में एक पाखंडी व्यक्ति है, जो भीतर कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। पाखंडी व्यक्ति का मतलब है कि बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है और भीतर अज्ञानी जैसा होता है। पाखंडी का मतलब है कि भीतरी अज्ञानी जैसा--उसके भीतर भी गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है--और बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है, अहिंसक होता है, अहिंसा परमो धर्मः की तख्ती लगा कर बैठता है, सच्चरित्रवान दिखाई पड़ता है, सब नियम पालन करता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर का उसका व्यक्तित्व लेता है वह ज्ञानी से उधार और भीतर का व्यक्तित्व वही होता है जो अज्ञानी का है। यह जो पाखंडी व्यक्ति है, जिसको समाज नैतिक कहता है, यह व्यक्ति कभी भी, कभी भी उस दिशा को उपलब्ध नहीं होगा, जहां धर्म है। अनैतिक व्यक्ति उपलब्ध हो भी सकता है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पापी पहुंच जाते हैं और पुण्यात्मा भटक जाते हैं, क्योंकि पापी के दोहरे कारण हैं पहुंच जाने के। एक तो पाप दुखदायी है। प्रकट पाप बहुत दुखदायी है। उसकी पीड़ा है। वह पीड़ा ही रूपांतरण लाती है। दूसरी बात यह है कि पाप करने के लिए साहस चाहिए। समाज के विपरीत जाने के लिए भी साहस चाहिए। जो पाखंडी लोग हैं, वे मीडियाकर हैं, उनमें साहस बिलकुल नहीं है। साहस न होने की वजह से चेहरा वे वैसा बना लेते हैं, जैसा समाज कहता है--समाज के डर के कारण--और भीतर वैसे रहे आते हैं, जैसे वे हैं। अनैतिक व्यक्ति के पास एक करेज है, एक साहस है।

Saturday, January 30, 2010

क्षमा

क्षमा। थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए कि हम क्षमा से जो अर्थ लेते हैं, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। हो भी नहीं सकता। असल में हमारी और कृष्ण की भाषा एक नहीं हो सकती। और जब भी हम कृष्ण को अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं--संस्कृत से हिंदी में नहीं--कृष्ण की भाषा को अपनी भाषा में जब हम अनुवादित करते हैं, तब बुनियादी भूलें हो जाती हैं। जैसे क्षमा; अगर हम पूछें अपने से कि क्षमा का क्या अर्थ है? तो साफ है अर्थ कि अगर किसी पर क्रोध आ जाए तो उसे क्षमा कर देना। लेकिन कृष्ण की भाषा में क्षमा का यह अर्थ नहीं होता। कृष्ण की भाषा में क्षमा का अर्थ होता है, क्रोध का न आना। हमारी भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का आना और क्षमा करना। कृष्ण की भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का न आना, क्रोध का अभाव। हमारा अर्थ है, क्रोध को लीपना-पोतना।मुझे आप पर क्रोध आ गया। पीछे पछतावा आता है; फिर मैं क्षमा मांग लेता हूं। तो क्रोध से जो भूल हुई थी, उसे मैं पोंछ देता हूं। एक लकीर गलत पड़ गई थी, उसे काट देता हूं। लेकिन क्रोध हो गया। और यह जो क्षमा है, यह केवल क्रोध को पोंछने का उपाय करती है; नकारात्मक है, निगेटिव है। इस क्षमा का बहुत उपयोग नहीं है। यह तो हम करते रहते हैं। चलता रहता है। अगर इसी क्षमा में अनुभव होता हो परमात्मा का, तो हम सबको हो गया होता।कृष्ण का क्षमा से अर्थ है, जहां क्रोध पैदा नहीं होता। जहां क्रोध जन्मता नहीं, जहां क्रोध की घड़ी मौजूद होती है और भीतर क्रोध का कोई रिएक्शन, कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती, कोई प्रतिकर्म पैदा नहीं होता।बुद्ध एक गांव से गुजरते हैं, कुछ लोग गालियां देते हैं। और बुद्ध उनसे कहते हैं कि अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं! उनमें से एक आदमी पूछता है, आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि हमने बातें नहीं की हैं, गालियां दी हैं। बुद्ध कहते हैं, अगर पूरी न हुई हो बातचीत, तो जब मैं लौटूंगा, तब थोड़ा ज्यादा समय लेकर यहां रुक जाऊंगा। लेकिन अभी मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।निश्चित ही, वे दो तरह की भाषाएं बोल रहे हैं। उस गांव के लोग गालियां समझ सकते हैं; गालियों के उत्तर में गालियां दी जाएं, यह भी समझ सकते हैं। गालियां क्षमा कर दी जाएं; बुद्ध कह दें कि जाओ मैंने माफ किया तुम्हें, यह भी समझ सकते हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम्हारी बात अगर पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं! न क्रोध है, न क्षमा है। गालियां जैसे दी ही नहीं गईं। और अगर दी भी गई हैं, तो कम से कम ली तो गई ही नहीं हैं।एक आदमी पूछता है, लेकिन हम ऐसे न जाने देंगे। हम जानना चाहते हैं कि पागल आप हैं कि पागल हम हैं? हम गालियां दे रहे हैं, इनका उत्तर चाहिए! बुद्ध ने कहा, अगर तुम्हें इनका उत्तर चाहिए था, तो तुम्हें दस वर्ष पहले आना था। तब मैं तुम्हें उत्तर दे सकता था। लेकिन जो उत्तर दे सकता था, वह तो समय हुआ, मर गया। तुम गालियां देते हो, यह तुम्हारा काम है, लेकिन मैंने तो बहुत समय हुआ जब से गालियां लेना ही बंद कर दीं। देने की जिम्मेवारी तुम्हारी है, लेकिन अगर मैं न लूं, तो तुम क्या करोगे? कम से कम इतनी स्वतंत्रता तो मेरी है कि मैं न लूं। और अब मैं व्यर्थ चीजें नहीं लेता। तो मैं जाऊं, अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो! पर लोगों को बड़ी मुश्किल है। बुद्ध गालियां दे दें, तो भी लोग घर शांति से लौट जाएं। बुद्ध क्षमा कर दें और कहें कि नासमझ हो तुम, तुम्हें कुछ पता नहीं, तो भी लोग घर शांति से लौट जाएं। लेकिन अब इन लोगों की नींद हराम हो जाएगी, क्योंकि यह बुद्ध इनको अधर में लटका हुआ छोड़ गए। इन्होंने गाली दी थी; नदी के एक तरफ से सेतु बनाया था; दूसरा किनारा ही न मिला! इन्होंने तीर छोड़ा था, निशाना ठीक जगह लगे; हर्ज नहीं, गलत जगह लगे; लगे तो। निशाना लगा ही नहीं। और तीर चलता ही चला जाए और निशाना लगे ही नहीं, तो जैसी मजबूरी में, जैसी तकलीफ में तीर पड़ जाए, वैसी तकलीफ में ये पड़ जाएंगे। तो बुद्ध उन्हें तकलीफ में देखकर कहते हैं कि तुम बड़ी तकलीफ में पड़ गए मालूम पड़ते हो। तुम्हारी सूझ-बूझ खो गई, तो मैं तुम्हें एक सुझाव देता हूं। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयों का थाल लेकर मुझे देने आए थे, लेकिन मेरा पेट था भरा और मैंने उनसे कहा कि तुम इन्हें वापस ले जाओ। तो वे अपनी मिठाइयों का थाल वापस ले गए। मैं तुमसे पूछता हूं, उन्होंने क्या किया होगा? तो एक आदमी ने भीड़ में से कहा, क्या किया होगा! गांव में जाकर मिठाई बांट दी होगी। तो बुद्ध ने कहा, अब तुम क्या करोगे? तुम गालियों का थाल भरकर लाए, और मैं लेता नहीं हूं। तुम जाकर गांव में इन्हें बांट लेना, ताकि तुम रात शांति से सो सको! क्षमा का अर्थ है, वैसी चित्त की दशा, जहां क्रोध व्यर्थ हो जाता है। क्षमा का अर्थ है, चित्त की वैसी भाव-दशा, जहां क्रोध जन्मता ही नहीं।यह बहुत मजे की बात है कि क्रोध हमें इसलिए जन्मता है-- इसलिए नहीं कि लोग क्रोध जन्मा देते हैं--क्रोध हमें इसलिए जन्मता है कि क्रोध हमारे भीतर सदा है। जब कोई आपको गाली देता है, तो आप इस भ्रांति में मत पड़ना कि उसने आपमें क्रोध पैदा करवा दिया। क्रोध तो आपके भीतर मौजूद था। उसकी गाली तो केवल उसे बाहर लाने का काम करती है।जैसे कोई एक बाल्टी को रस्सी में बांधकर कुएं में डाल दे और खींचे और पानी भरकर बाहर आ जाए, तो क्या आप यह कहेंगे कि इस आदमी ने कुएं में पानी भर दिया? यह सिर्फ बाल्टी डालता है, कुएं में जो पानी भरा ही था, वह बाहर निकल आता है। अगर यह आदमी खाली कुएं में, सूखे कुएं में बाल्टी डाले, तो बाल्टी भड़भड़ाएगी, परेशान होगी; खाली वापस लौट आएगी।बुद्ध में जब कोई गाली डालता है, तो खाली, सूखे कुएं में बाल्टी डाल रहा है। बाल्टी वापस लौट आएगी। मेहनत व्यर्थ जाएगी। हमारे भीतर जब कोई बाल्टी डालता है, गाली डालता है, तो भरी हुई लौटती है, लबालब लौटती है; ऊपर से बहती हुई लौटती है। और हम सोचते हैं, इस आदमी ने गाली दी, इसलिए मुझमें क्रोध पैदा हुआ! नहीं। क्रोध आपके भीतर था, इस आदमी ने कृपा की, गाली दी और आपको आपके क्रोध के दर्शन करवाए। इसने आपके क्रोध को आपके समक्ष प्रकट किया।क्रोध किसी की गाली से पैदा नहीं होता, नहीं तो बुद्ध में भी पैदा होगा। क्रोध तो है ही, मौके उसे प्रकट करने में सहयोगी हो जाते हैं। और अगर मौके न मिलें और क्रोध भीतर हो, तो हम मौके खोज लेते हैं।आप सबको पता होगा, अगर दो-चार-आठ दिन क्रोध करने का कोई मौका न दे, तो जैसी बेचैनी होती है, वैसी बेचैनी क्रोध करने से भी नहीं होती। मनसविद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आदमी को क्रोध करने का मौका न मिले, तो वह मौका खोज लेता है। वह ऐसी बात में से मौका निकाल लेता है, जहां कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यहां क्रोध की कोई जरूरत है। वह चारों तरफ तलाश में रहता है। वह चारों तरफ अपने आस-पास अज्ञात फीलर्स छोड़ देता है; खोजते रहते हैं कि कहीं जरा मौका मिल जाए और वह क्रोध से भर जाए।अगर इस आदमी को बंद कर दें तीन महीने एकांत में, तो यह दीवालों से लड़ेगा। यह दीवालों से सिर फोड़ेगा। यह खाली आकाश में गालियां देगा। यह अपने को भी चोट पहुंचा सकता है; अपने को भी मार सकता है। क्रोध अपने पर भी प्रकट कर सकता है।क्रोध आपकी एक अवस्था है। ध्यान रखें, अगर क्रोध सिर्फ एक प्रतिक्रिया है किसी के द्वारा पैदा की गई, तब तो क्षमा असंभव है। क्रोध आपकी एक अवस्था है; और अगर आप अपने को बदल लें, तो क्षमा भी आपकी अवस्था हो सकती है। और तब कोई आपके भीतर बाल्टी डाले, तो क्षमा भरकर बाहर निकले।जीसस को सूली पर लटकाया है। और जीसस से कहा गया है कि अगर तुम्हें कोई अंतिम प्रार्थना करनी हो, तो मृत्यु के पहले कर लो। तो वे प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा! इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।गाली नहीं, सूली डाली गई है भीतर! और यह आदमी कहता है, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं, ये क्या कर रहे हैं! भीतर क्षमा हो, तो क्षमा निकलेगी। भीतर क्रोध हो, तो क्रोध निकलेगा।इस बात को एक मौलिक सूत्र की तरह अपने हृदय में लिखकर रख छोड़ें कि जो आपके भीतर है, वही निकलेगा। इसलिए जब भी कुछ आपके बाहर निकले, तो दूसरे को दोषी मत ठहराना। वह आपकी ही संपदा है, जिसको आप अपने भीतर छिपाए थे।इसलिए कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय। अपनी निंदा करने वाले को आंगन और कुटी छवाकर अपने पास ही रख लेना चाहिए, ताकि भीतर जो भी कचरा है, वह उसका दर्शन करवाता रहे। वह बार-बार ऐसी बातें कहता रहे कि भीतर जो भी है, वह दिखाई पड़ता रहे। ताकि किसी दिन उससे छुटकारा भी हो जाए।लेकिन हम प्रशंसकों को पास रखना पसंद करते हैं। क्योंकि जो हमारे भीतर नहीं है, वह वे बताते रहते हैं। जो हमारे भीतर नहीं है वह! और जो हमारे भीतर है, उसे छिपाते रहते हैं। हम मित्र उनको कहते हैं--नासमझी हमारी हद्द की है--हम मित्र उनको कहते हैं, जो हमारे भीतर नहीं है, उसका हमें दर्शन कराते रहते हैं। और हम शत्रु उनको कहते हैं--नासमझी हमारी हद्द की है--कि जो हमारे भीतर है, उसका दर्शन कराएं, तो हम उन्हें शत्रु मान लेते हैं! अगर कोई गाली दे और भीतर क्रोध आए, तो उसे धन्यवाद देना कि उसने एक अवसर दिया, एक मौका जुटाया, एक परिस्थिति बनाई, जिसमें आपका क्रोध आपको दिखाई पड़ा। और अगर कोई व्यक्ति गाली देने वाले को भी धन्यवाद दे पाए, तो एक दिन उसके भीतर क्षमा की शक्ति पैदा होगी। वह क्षमा पाजिटिव है। वह क्षमा किसी किए गए क्रोध का पछतावा नहीं है; किसी क्रोध के लिए मांगी गई माफी नहीं है।मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्रोध करना, तो माफी मत मांगना। यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन उस माफी को कृष्ण की क्षमा मत समझना। वह हमारे बाजार की क्षमा है। हमारी दुनिया की क्षमा है। वह कारगर है, लुब्रिकेटिंग है, उसका बड़ा उपयोग है।आप मुझे गाली दे गए, फिर अगर आप मुझसे क्षमा न मांगें, तो मेरे और आपके बीच चका बिलकुल जाम हो जाएगा, लुब्रिकेशन मुश्किल हो जाएगा। थोड़ा तेल चाहिए; चके चलते रहते हैं। और जिंदगी बड़े चकों का जाल है। चके में चके उलझे हुए हैं। यहां अगर बिलकुल क्षमा वगैरह मत करिए, तो आप जाम हो जाएंगे, अटक जाएंगे; हिलना मुश्किल हो जाएगा। मांग ली क्षमा; थोड़ा तेल पड़ गया चके में; चके फिर चलने लगे। बस हमारी क्षमा का तो इतना ही उपयोग है। लेकिन उपयोग है, और जिंदगी चलती है इस लुब्रिकेशन से। लेकिन कृष्ण की क्षमा कोई और बात है। इस क्षमा में उस अखंड का दर्शन नहीं होगा। अगर क्षमा आपका स्वभाव बन जाए, क्रोध संभव ही न हो, अक्रोध सहज हो जाए। कोई नींद में भी आपको डाल दे आपके भीतर कुछ, तो क्षमा ही बाहर आए। आपके रोएं-रोएं से आशीष ही बहने लगें, आपका कण-कण शुभकामना और मंगल से भर जाए, तो क्षमा है। कृष्ण कहते हैं, क्षमा मैं हूं, सत्य मैं हूं, इंद्रियों का वश में करना मैं हूं, मन का निग्रह मैं हूं। मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में करना--इस संबंध में थोड़ी-सी बात खयाल में ले लें। एक, व्यापक रूप से गलत धारणा हमारे भीतर है। जब भी हम सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना, तो कोई संघर्ष, कोई युद्ध, कोई लड़ाई, कोई भीतरी कलह का खयाल आता है। जब भी हम सोचते हैं, मन का निग्रह करना, तो कोई जबरदस्ती, कोई दमन, कोई रिप्रेशन करने का खयाल मन में आता है।वे बड़े गलत खयाल हैं। और जो व्यक्ति भी अपनी इंद्रियों को दुश्मन की तरह वश में करने जाएगा, वह मुसीबत में पड़ेगा। वह मालिक तो कभी न हो पाएगा, विक्षिप्त हो सकता है। और जो व्यक्ति जबरदस्ती अपने मन को ठोंक-पीटकर वश में करने की चेष्टा में लगेगा, उसका मन विद्रोही हो जाएगा, मन बगावती हो जाएगा; और मन उसे ऐसी जगह ले जाने लगेगा, जहां-जहां वह चाहता है कि मन न जाए। जहां-जहां चाहेगा कि न जाए मन, वहां-वहां जाने लगेगा। जहां-जहां रोकेगा मन, मन वहां-वहां और भी बहने लगेगा। इंद्रियों पर जितनी जबरदस्ती करेगा, उतना ही पाएगा कि एंद्रिक और सेंसुअल होता चला जा रहा है।इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई जबरदस्ती ब्रह्मचर्य को थोपने बैठ जाए, तो उसके चित्त में कामवासना जितनी भयंकर हो जाती है, तूफान ले लेती है, उतना किसी गहरे से गहरे कामी के मन में भी नहीं होती।आपको पता होगा, अगर किसी दिन उपवास करें, तब आपको पता चलेगा कि भोजन की याद उपवास के दिन ही आती है। ऐसे भोजन की कोई याद आती है! आदमी भोजन कर लेता है और भूल जाता है। आप सड़क पर निकलते हैं, आपको कभी खयाल आया कि आप कपड़े पहने हुए हैं! एक दिन नग्न निकलकर सड़क पर देखें, तब आपको कपड़े ही कपड़े याद आएंगे।जबरदस्ती किसी चीज को रोका जाए, तो वह स्मृति में गहन हो जाती है। जोर से आती है, प्रगाढ़ हो जाती है। उसका बल, उसकी ताकत बढ़ जाती है।इंद्रिय-निग्रह या मन-निग्रह जबरदस्तियां नहीं हैं, वैज्ञानिक विधियां हैं। इसे खयाल में ले लें। वैज्ञानिक विधियां हैं। लड़ाई का सवाल नहीं है, समझ का सवाल है। और जो व्यक्ति मन से लड़ेगा, वह कभी मन का मालिक न होगा। जो व्यक्ति मन को समझेगा, वह मन का मालिक तत्काल हो जाएगा। समझ सूत्र है, दमन नहीं।लेकिन हम लड़ते रहते हैं। एक आदमी को क्रोध आता है, तो वह क्रोध को दबाता है कि क्रोध करना अच्छा नहीं है। शास्त्र में पढ़ा है, गुरुओं से सुना है, क्रोध करना बुरा है। क्रोध आता है; अब वह क्या करे? उसे दबा लेता है। दबाया हुआ और भीतर पहुंच जाता है। दबाया हुआ और रग-रग, रोएं-रोएं में फैल जाता है। दबाया हुआ नए रास्तों से निकलना शुरू हो जाता है। दबाया हुआ धीरे-धीरे स्वभाव में जहर की तरह फैल जाता है।इसलिए देखें आप, जो आदमी को यह वहम हो कि मैंने क्रोध पर काबू पा लिया है, उसके आप रोएं-रोएं में क्रोध को झलकता हुआ देखेंगे। जिस आदमी को खयाल हो कि मेरा अहंकार बिलकुल समाप्त हो गया है, मैं तो बिलकुल विनम्र हो गया हूं, उसकी आंख की झलक में, उसके चेहरे के भाव में, जगह-जगह आप अहंकार की छाप पाएंगे।जिस आदमी को खयाल हो कि मैंने संसार को लात मार दी है, संसार को छोड़ दिया है, त्याग कर दिया है, उसको अगर आप थोड़ा भी गौर से देखेंगे, तो उसे संसार में इस बुरी तरह फंसा हुआ पाएंगे, जिसका हिसाब नहीं। संसार नहीं होगा उसके चारों तरफ, तो भी फंसा हुआ पाएंगे। क्योंकि एक छोटी-सी लंगोटी भी पूरा साम्राज्य बन सकती है।जो दबाया जाता है, वह विषाक्त कर देता है।नहीं; कृष्ण का अर्थ दमन से नहीं है। इसलिए जो दमित करेगा अपने को, वह तो और भी परमात्मा की झलक से दूर हो जाएगा। कृष्ण का प्रयोजन है रूपांतरण से, ट्रांसफार्मेशन से, एक क्रांति से, जो ज्ञान से संभव होती है।जिस व्यक्ति को क्रोध के बाहर जाना हो, उसे क्रोध को समझना चाहिए, उसे क्रोध को पहचानना चाहिए। क्रोध ताकत है। जैसे आकाश में बिजली कौंधती है। एक दिन हम उससे डरते थे और घबड़ाते थे। आज वही बिजली प्रकाश देती है। एक दिन आकाश में कौंधती थी, तो हम घुटने टेककर जमीन पर, प्रार्थना करते थे, कि जरूर परमात्मा नाराज है, देवता रुष्ट हैं। आज उस बिजली को हमने बांध दिया। आज कोई आकाश में चमकती बिजली को देखकर घबड़ाता नहीं है, क्योंकि अब हम जानते हैं उस बिजली के विज्ञान को। क्रोध भी आपके भीतर कौंधती हुई बिजली है। और मजा तो यह है कि आकाश की बिजली को बांधने में हम समर्थ हो गए, आदमी के भीतर की बिजलियां अभी भी गैर-सम्हली पड़ी हैं।क्रोध शक्ति है। अगर एक बच्चा ऐसा पैदा हो, जिसमें क्रोध हो ही नहीं, तो वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा; मर जाएगा। नपुंसक होगा; उसमें बल ही नहीं होगा। क्रोध शक्ति है। लेकिन शक्ति का दुरुपयोग हो सकता है, सदुपयोग हो सकता है। जब कोई उस शक्ति का दुरुपयोग करता है, तो जीवन नर्क हो जाता है। क्रोधी का जीवन शक्ति का दुरुपयोग है। और जब कोई उसी शक्ति का सदुपयोग करता है, तो वही शक्ति क्षमा बन जाती है। और क्षमाशील का जीवन स्वर्ग हो जाता है।कृष्ण जब कहते हैं, इंद्रियों के निग्रह में मैं हूं, मनोनिग्रह में मैं हूं, तो उनका अर्थ है कि जो व्यक्ति इंद्रियों को जानकर, इंद्रियों को समझकर, ज्ञान से उनके पार हो जाता है; जो व्यक्ति मन को पहचानकर, मन के प्रति जागरूक होकर, मन के ऊपर उठ जाता है, उसे मेरी झलक मिलनी शुरू हो जाती है।दमन से नहीं, रूपांतरण से। लड़कर नहीं, जानकर।यह सूत्र थोड़ा बारीक है। क्योंकि जानने का क्या अर्थ? कभी आपने सोचा है कि आपने क्रोध को जाना? आप कहेंगे, बहुत जाना। रोज जानते हैं! लेकिन फिर भी मैं आपसे कहूंगा, आपने कभी नहीं जाना। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आपका जानना बिलकुल ही नहीं होता है। आपका जानना खो गया होता है। तब आप बिलकुल पागल होते हैं।क्रोध जो है, वह अस्थायी पागलपन है। उस वक्त होश वगैरह आपके भीतर बिलकुल नहीं होता। उस वक्त आप जो करते हैं, वह आप करते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। आप से होता है, ऐसा ही कहना ठीक है। क्योंकि क्रोध के बाद आप ही पछताते हैं और कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट आफ मी, मुझसे हो गया। यह मैं सोचता तो नहीं था कि इस बच्चे को उठाकर खिड़की के बाहर फेंक दूंगा और यह मर जाएगा। यह मैंने सोचा ही नहीं था, लेकिन यह हो गया। यह मैंने किया नहीं है; यह हो गया है। लेकिन फिर किसने किया? क्रोध इतना हावी हो गया था कि आपकी चेतना बिलकुल खो गई थी और आप बिलकुल मूढ़ हो गए थे, सो गए थे, बेहोश थे।एक मुसलमान खलीफा हारुन अल रशीद अपने घोड़े पर राजधानी से निकल रहा है बगदाद में। एक आदमी अपने छप्पर पर खड़े होकर खलीफा को गालियां देने लगा। अभद्र गालियां थीं। खलीफा ने सुना और अपने सिपाहियों को कहा कि कल सुबह इस आदमी को दरबार में पकड़कर ले आओ। वह आदमी उसी समय पकड़कर बंद कर दिया गया। दूसरे दिन सुबह उस आदमी को दरबार में लाया गया।तो खलीफा ने उससे पूछा कि कल तुमने छप्पर के ऊपर खड़े होकर गालियां किस प्रयोजन से दी थीं? उस आदमी ने कहा कि क्षमा करें, जिसने गालियां दी थीं, वह अब मैं नहीं हूं। खलीफा ने कहा कि तुम वह नहीं हो? शक्ल मैं तुम्हारी ठीक से पहचानता हूं। और सिपाहियों ने कहा कि यही आदमी है। लेकिन उस आदमी ने कहा कि और सब ठीक है। शक्ल भी वही है। आदमी भी वही है एक अर्थ में। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, वह मैं नहीं हूं, क्योंकि कल मैंने शराब पी रखी थी। और जब सुबह मैं होश में आया, तो मैंने सोचा, अरे, यह मैंने क्या किया! खलीफा ने उसे मुक्त कर दिया।लेकिन आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तब भी शराब आपके रग-रग रेशे-रेशे में दौड़ जाती है! अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके शरीर के भीतर ग्रंथियां हैं जहर की। जब आप क्रोध में होते हैं, तो वे ग्रंथियां जहर को छोड़ देती हैं और आप बेहोश हो जाते हैं; केमिकली आप बेहोश हो जाते हैं।तो आपने क्रोध को कभी जाना नहीं। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आप नहीं होते। और जब आप लौटते हैं, तब तक क्रोध जा चुका होता है। आपकी मुलाकात नहीं हुई है क्रोध से अभी। क्रोध को जानने का, या और वासनाओं को जानने का एक ही उपाय है कि जब क्रोध मौजूद हो, तब आप आंख बंद करें और क्रोध पर ध्यान करें कि यह क्या है? कैसे उठ रहा है? कहां से आया है? कहां जा रहा है? क्या प्रयोजन है? यह क्या है शक्ति? इसका क्या है रूप? यह क्या करना चाहता है? लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपकी नजर दूसरे पर होती है, जिसने क्रोध करवाया। उसी में आप चूक जाते हैं। जब आप क्रोध में हों, तो नजर अपने पर रखें। दूसरे को भूल जाएं, जिसने गाली दी। उससे तो घड़ीभर बाद भी मुलाकात हो सकती है। लेकिन यह क्रोध जो आपके भीतर है, यह घड़ीभर बाद नहीं होगा; यह बह गया होगा। फिर इससे मुलाकात नहीं होगी। इस मौके को मत चूकें।गुरजिएफ ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि मेरे पिता ने मरते वक्त मुझसे कहा था--एक छोटी-सी बात, वही मेरे जीवन में बदलाहट बन गई--उन्होंने मरते वक्त मुझसे कहा था कि मेरे पास देने को तुझे कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक छोटी-सी सलाह है, जिसने मेरी जिंदगी को सोना बना दिया, वह मैं तुझे देता हूं। और वह सलाह यह थी कि जब तुझे कभी कोई गाली दे, तो तू चौबीस घंटेभर बाद जवाब देना; चौबीस घंटे बाद जवाब देना, इसके पहले जवाब मत देना। उससे कह देना कि मैं आऊंगा। चौबीस घंटे का मुझे मौका दें, ताकि मैं सोचूं, विचारूं। मैं चौबीस घंटेभर बाद आकर जवाब दे दूंगा।गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे जवाब देने का मौका कभी नहीं आया। चौबीस घंटे बहुत लंबा वक्त था, इतनी देर जहर टिकता नहीं। वह तत्काल हो जाए, तो हो जाए।मगर हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर कोई भला काम करना हो, तो हम कहते हैं, जरा सोचेंगे। बुरा काम करना हो, तो हम बड़े तत्काल! फिर हम कभी नहीं कहते कि सोचेंगे। अगर कोई कहे कि एक दो पैसे दान कर दो, तो हम कहेंगे, सोचेंगे। और कोई एक गाली दे, तो हम कभी नहीं कहते कि जरा सोचेंगे। फिर सोचने का कोई सवाल नहीं है। फिर हम तत्काल! फिर हमसे ज्यादा त्वरा और तीव्रता में और जल्दी में कोई नहीं होता।यह जल्दी क्या है, आपको पता नहीं। यह जल्दी केमिकल है, यह जल्दी रासायनिक है। वह जहर जो आपके खून में छूटा है, वह कहता है, जल्दी करो! क्योंकि अगर दो क्षण भी चूक गए, तो वह जहर तब तक खून में विलीन हो जाएगा। वह जहर जो आपकी नसों में फैलकर अकड़ गया है, वह कहता है, उठाओ घूंसा और मारो! क्योंकि अगर नहीं मारा, तो यह जहर तो बेकार चला जाएगा।क्रोध जब हो, तब ध्यान का क्षण समझें। आंख बंद कर लें। बीच सड़क पर भी हों, तो वहीं आंख बंद कर, एक किनारे पर बैठकर ध्यान कर लें कि भीतर क्या हो रहा है! लोग शायद आपको पागल समझें, लेकिन आप पागल नहीं हैं। क्योंकि क्रोध को जो जान लेगा, वह सब पागलपन के ऊपर उठ जाता है। जब कामवासना आपको पकड़े, तब रुक जाएं। ध्यान करें उस पर। उस वासना को पहचानें भीतर से, क्या है? कौन-सी ऊर्जा भीतर उठकर इतना धक्का दे रही है कि आप पागल हुए जा रहे हैं? तो आप बहुत शीघ्र उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, जिस ज्ञान में ये इंद्रिय-निग्रह, मनो-निग्रह सरलता से फलित हो जाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं ही हूं।वे कहते हैं, सुख और दुख, उत्पत्ति और प्रलय, भय और अभय भी मैं ही हूं।इन तीन द्वंद्वों को एक साथ उपयोग करने का प्रयोजन है। हम सब सोचते हैं, हम सबने सोचा है बहुत बार कि परमात्मा आनंद है। लेकिन कभी सोचा है कि परमात्मा दुख भी है? यह सूत्र बहुत खतरनाक है।कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं और दुख भी मैं।हम सब सोचते हैं कि परमात्मा सुख का धाम है। परम सुख अगर चाहिए, तो परमात्मा की तरफ जाओ। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि सुख भी मैं और दुख भी मैं! तो क्या वे वेदों की, उपनिषदों की जो परम उक्ति है, सच्चिदानंद की, उसके खिलाफ बोल रहे हैं? नहीं; उसके खिलाफ नहीं बोल रहे हैं। लेकिन अगर उस तक जाना हो, तो इस सूत्र को मानकर चलने वाला ही उस तक पहुंचता है, जहां परमात्मा मात्र आनंद रह जाता है। इस सूत्र को मानने वाला--सुख और दुख, दोनों में जो परमात्मा को देखता है, वह एक दिन परम आनंद को उपलब्ध होता है।हम सुख में तो परमात्मा को देख सकते हैं, लेकिन दुख में! दुख में नहीं देख सकते। और जो दुख में नहीं देख सकता, वह समता को उपलब्ध नहीं होगा, शांति को उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन जो दुख में भी देख सकता है, वह समता को उपलब्ध हो जाएगा। अगर आपको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप दुख से भागना न चाहेंगे। परमात्मा से कोई भागना चाहता है? अगर दुख में परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप प्रार्थना न करेंगे कि दुख से मुझे छुड़ाओ! क्योंकि परमात्मा से कोई छूटना चाहता है? और जिसको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाए, उसके लिए फिर कोई दुख जगत में नहीं रह जाएगा। क्योंकि दुख का मतलब ही तभी तक है, जब तक हम उससे बचना चाहते हैं, भागना चाहते हैं। जिस दिन कोई दुख को भी आलिंगन करके गले लगा ले; और जिस दिन दुख को भी कोई कहे कि प्रभु आए द्वार मेरे, स्वागत है; उस दिन फिर कोई दुख नहीं बचेगा। और जिसके जीवन में कोई दुख नहीं बचता, उसके जीवन में सभी कुछ सुख हो जाता है।हमारे जीवन में दुख से बचने की और सुख को पकड़ने की आकांक्षा होती है। लेकिन परिणाम क्या है? परिणाम इतना है कि दुख ही दुख हो जाता है; सुख तो कहीं मिलता नहीं।कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं, दुख भी मैं; उत्पत्ति भी मैं, प्रलय भी मैं; जन्म भी मैं, मृत्यु भी मैं। सारे द्वंद्व मैं हूं। भय भी मैं, अभय भी मैं। जहां-जहां द्वंद्व दिखाई पड़ें, दोनों में मैं ही हूं। ऐसा जो मुझे देखेगा, वह आगे के सूत्रों को समझना और आसान हो जाएगा।तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, ऐसे ये जो नाना प्रकार के भाव प्राणियों में होते हैं, वे मेरे से ही होते हैं। और हे अर्जुन, सात महर्षिजन, और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है।इस सूत्र का अर्थ है कि जितने भी जानने वाले हुए हैं अब तक, जिन्होंने भी जाना है इस सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे ही संकल्प थे, मेरे ही भाव थे; वे भी मुझसे अलग नहीं हैं। जिन्होंने भी कभी उस परम अनुभव को पाया है, चाहे वे पहले हुए ऋषि-महर्षि हों, चाहे मनु आदि हों, वे सब भी मेरे ही भाव की अवस्थाएं हैं।कृष्ण यह कह रहे हैं कि इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम फूल खिलते हैं अनुभव के, वे सब मेरी ही सुगंध से परिव्याप्त हैं। और जब भी कोई अपनी परम दशा में पहुंचता है, तो मुझको ही उपलब्ध हो जाता है।लेकिन उस परम दशा में वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो द्वंद्व के बीच अपने को समता में ठहरा लेते हैं। जो दो के बीच चुनाव नहीं करते, जो यह नहीं कहते कि हमें सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए। जो कहते हैं, दुख में भी तू है, और सुख में भी तू है। जो यह नहीं कहते कि जन्म तो प्यारा है, जीवन तो प्यारा है; मृत्यु नहीं चाहिए, हमें तो अमर जीवन चाहिए। जो ऐसा नहीं कहते हैं। जो कहते हैं, मृत्यु भी तेरी, जन्म भी तेरा। दोनों हमें प्रीतिकर हैं, क्योंकि दोनों ही तेरे हैं।इस जगत में जो चुनाव नहीं करते हैं, इस जगत में जो च्वाइसलेस, चुनावरहित जीने के उपक्रम में प्रवेश करते हैं, वे सभी, चाहे किसी काल में हुए हों, वे सभी महर्षिगण, मुझको ही, मेरे ही संकल्प को, मेरे ही भाव को उपलब्ध होते हैं। कहें कि वे मेरे ही भाव के अंश हैं, वे मेरी ही लहरें हैं। लेकिन वे ऐसी लहरें हैं, जो मेरे सागर होने को भी अनुभव कर लेती हैं।