Friday, November 19, 2010

कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गज भर भी न वसन ढंकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

मुखड़ा सटक गया घुटनों में
अटक कंठ में प्राण राह गए
सिकुड़ गया तन जैसे मन में
सिकुड़ सब अरमान राह गए

मिली आग लेकिन न भाग्य सा
जलने को जुट पाया इंधन
दांतों के मिस प्रकट हो गया
मेरा कठिन शिशिर का क्रंदन

किन्तु अचानक लगा की यह
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

श्वेत मांग सी विधवा की
चदरी कोई इन्सान दे गया
और दूसरा बिन मांगे ही
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया

वस्त्र मिल गया ठण्ड मिट गयी
धन्य हुआ मानव का चोला
कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

कहते मरे रहीम न लेकिन
पेट पीठ मिल एक हो सके
नहीं अश्रु से आज तलक हम
अमिट छुधा का दाग धो सके

खाने को कुछ नहीं मिला सो
खाने को गम मिले हजारों
श्री संपन्न नगर ग्रामों में
भूखे बेदम मिले हजारों

दाने दाने पर पाने वाले
का सुनता नाम लिखा है
किन्तु देखता हूँ इन पर
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है

दास मलूका से पूंछो क्या
" सबके दाता राम" लिखा है ?
या की गरीबों की खातिर
भूखों मरना अंजाम लिखा है ?

किन्तु अचानक लगा के यह
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

जुटा जुटा कर रेजगारियाँ
भोज मनाने बंधू चल पड़े
जहाँ न थी कल थी बूँद दिखती
वहां उमड़ते सिन्धु चल पड़े

निर्धन के घर हाथ सुखाते
नहीं किसी का अंतर डोला
कफ़न फाड़ कर मुर्दा बोला

घरवालों के आस पास से
मैंने केवल दो कण माँगा
किन्तु मिला कुछ नहीं और
में बे पानी ही मरा अभागा

जीते जी तो नल के जल से
भी अभिषेक किया न किसी ने
रहा अपेछित सदा निराद्रत
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने

बाप तरसता रहा की बेटा
श्रद्धा के दो घूँट पिला दे
स्नेह लता जो सूख रही है
जरा प्यार से उसे जिला दे

कहाँ श्रवन ? युग के दशरथ ने
एक एक को मार गिराया
मन मृग भोला रहा भटकता
निकली सब कुछ लू की माया ॥








No comments:

Post a Comment