Tuesday, October 13, 2009

स्वार्थी बनो और देखो

हमें दूसरों को प्रेम करने के बारे में तो मालूम है, परंतु स्वयं को? क्या वह दूसरे का काम है? ओशो का स्पष्ट उत्तर है,'नहीं'; प्रेम तुमसे ही शुरू होता है और स्वयं से प्रेम करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि तुम कौन हो।

स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदा हुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी ही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे।

कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।

मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है।

तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।

इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए।

अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?'
निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!

तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।

इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ।
फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।'

क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?

और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो!

Saturday, August 29, 2009

Ab Ke Hum Bichhray To Shayad

Ab Ke Hum Bichhray To Shayad Kabhi Khwabon Mein Milen
Jis Tarah Sookhay Hue Phool Kitabon Mein Milen

Dhoond Ujray Hue Logon Mein Wafa K Moti
Ye Khazanay Tujhe Mumkin Hai Kharabon Mein Milen

Gham-E-Duniya Bhi Gham-E-Yaar Mein Shaamil Kar Lo
Nasha Barhta Hai Shar?ben Jo Shar?bon Mein Milen

Tu Khuda Hai Na Mera Ishq Farishton Jaisa
Dono Insaan Hain To Kyun Itnay Hijaabon Mein Milen

Aaj Hum Daar Pe Khenchay Gaye Jin Baaton Par
Kya Ajab, Kal Vo Zamaanay Ko Nisaabon Mein Milen

Ab Na Vo Main Hun, Na Tu Hai, Na Vo Maazi Hai Faraz
Jaise Do Shakhs Tamanna K Saraabon Mein Milen

Saturday, August 22, 2009

आज की दुनिया

कि एक दिन राह में मैंने कहीं एक लाश थी देखी ,
लगा मुझको कहीं पर मैंने इसकी शक्ल है देखी ,
कि देखा ध्यान से उसको तो मेरी अक्ल चकराई ,
पड़ा जो राह में वो तो ख़ुद मैं ही हूँ भाई ,
न जाने कब कहा कैसे किधर को चल बसा था मैं ,
कई लोगों के बीच देखो आज आ के फंसा था मैं ,
कि मुझको देख कर सब लोग कुछ तो थे बोले ,
कई ने कुछ तो कई ने मेरे सारे राज थे खोले ,
कि मुझको देख कर एक यार बुक्के फाड़ के रोया ,
मैं समझा कि चलो ये ही मेरा एक यार है गोया ,
मगर वो था फरेबी दुष्ट और था महा पापी ,
वो बोला देख कर मुझको कि कुछ दिन बाद मर जाते ,
जो पैसे कल ही ले गए थे वो तो कुछ खर्च कर जाते ,
जो भी कर्जा लिया था तूने वो तुझको माफ़ करता हूँ ,
ये घड़ी , अंगूठी और चेन लेकर मैं हिसाब साफ़ करता हूँ ,
कि देख कर जेबों के पैसों को मेरे एक यार ये बोले ,
कि हाय छोड़ कर वादा अधूरा मर गया भोले ,
कि इन पैसों से आज तुझे मेरा वादा निभाना था ,
पहले सनीमा फ़िर कलब फ़िर बार जाना था ,
कि चल तेरी खातिर मैं तेरा वादा निभाऊंगा ,
कि तेरे नाम की दारु भी मैं ख़ुद ही चढाऊंगा ,
कि ये कह कर उन्होंने जेबों के सारे पैसे थे मारे ,
हम तो बस ये ही सोंचा किए क्या येही दोस्त थे सारे ,
"अभि" देखो जहाँ में आज तो बस ये ही ये अब है ,
नही इन्सान की कीमत यहाँ तो लाश ही सब है ।

तजुर्बा

मै उठूं तो रंग लायें चर्चाओ के सिलसिले,
लोग इतना कहे आदमी अच्छा न था !
लोग इस अंदाज में देते है दुनिया कि मिसाल,
मै तो जैसे तजुरबो के दौर से गुजरा न था !

Sunday, June 28, 2009

पिता

रोटी है , कपड़ा है , मकान है , पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है ।
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं , पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं ॥
अपने पापा को बेटी (दिव्यांशी)की तरफ़ से ......

Thursday, May 28, 2009

रिश्ता

ज्योति का जो दीप से ,
मोती का जो सीप से ,
वही रिश्ता , मेरा , तुम से !
प्रणय का जो मीत से ,
स्वरों का जो गीत से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !

गुलाब का जो इत्र से ,
तूलिका का जो चित्र से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
सागर का जो नैय्या से ,
पीपल का जो छैय्याँ से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !

पुष्प का जो पराग से ,
कुमकुम का जो सुहाग से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !

नेह का जो नयन से , डाह का जो जलन से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
दीनता का शरण से ,
काल का जो मरण से ,
वही रिश्ता मेरा तुमसे......

Thursday, May 7, 2009

बस ऐसे ही

दिल लगाने से पहले उसने मुझे रोका ना था ।
मेरा प्यार था सच्चा कोई धोखा न था ।
एक लम्हें में वो हमसे रिश्ता तोड़ लेंगे ।
ख्वाब में भी हमने कभी ये सोंचा न था ।
भुला दिया उसने एक पल में मुझे ,
जिसकी याद में मैं रात भर सोता न था ।
पलकों की नमी अब जाती ही नही ,
सब कहते हैं पहले तो मैं कभी रोता न था ।
तौलते हैं दौलत से हर रिश्ते को आज ,
पर पहले तो ऐसा कभी होता न था ।
गैरों के गम में भी हुआ मैं शरीक ,
पर मेरे अश्कों को तो अपनों ने भी पोछा न था ।
लोगों ने क्योँ उजाड़ दिया चमन मेरा ,
मैंने किसी के आँगन का सुमन नोचा न था ॥