समाज को मतलब, आपका जो चेहरा प्रकट होता है, उससे है; आपकी जो आत्मा अप्रकट रह जाती है, उससे नहीं है। इसलिए समाज इसकी चिंता ही नहीं करता कि भीतर आप कैसे हैं।
समाज कहता है, बाहर आप कैसे हैं, बस हमारी बात पूरी हो जाती है। बाहर आप ऐसा व्यवहार करें जो समाज के लिए अनुकूल है, समाज के जीवन के लिए सुविधापूर्ण है, सबके साथ रहने में व्यवस्था लाता है, अव्यवस्था नहीं लाता। समाज की चिंता आपके आचरण से है। धर्म की चिंता आपकी आत्मा से है। इसलिए समाज इतना फिक्र भर कर लेता है कि आदमी का बाह्य रूप ठीक हो जाए, बस इसके बाद फिक्र छोड़ देता है। बाह्य रूप ठीक करने के लिए वह जो उपाय लाता है, वे उपाय भय के हैं। या तो पुलिस है, अदालत है, कानून है, या पाप-पुण्य का डर है, स्वर्ग है, नरक है। ये सारे भय के रूप उपयोग में लाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि समाज के द्वारा आचरण की जो व्यवस्था है, वह भय-आधारित है और बाहर तक समाप्त हो जाती है। परिणाम में समाज केवल व्यक्ति को पाखंडी बना पाता है या अनैतिक, नैतिक कभी नहीं। पाखंडी या अनैतिक। पाखंडी इस अर्थों में कि भीतर व्यक्ति कुछ होता है, बाहर कुछ हो जाता है। और जो व्यक्ति पाखंडी हो गया, उसके धार्मिक होने की संभावना अनैतिक व्यक्ति से भी कम हो जाती है। इसे समझ लेना जरूरी है। समाज की दृष्टि में वह आदृत होगा, साधु होगा, संन्यासी होगा; लेकिन पाखंडी हो जाने के कारण वह अनैतिक व्यक्ति से भी बुरी दशा में पड़ गया है। क्योंकि अनैतिक व्यक्ति कम से कम सीधा है, सरल है, साफ है। उसके भीतर गाली उठती है तो गाली देता है और क्रोध आता है तो क्रोध करता है। वह आदमी स्पष्ट है, स्पांटेनियस है एक अर्थों में। सहज है, जैसा है, वैसा है। बाहर और भीतर में उसके फर्क नहीं है। परम ज्ञानी के भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता। परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर होता है। अज्ञानी जैसा बाहर होता है, वैसा ही भीतर होता है। बीच में एक पाखंडी व्यक्ति है, जो भीतर कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। पाखंडी व्यक्ति का मतलब है कि बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है और भीतर अज्ञानी जैसा होता है। पाखंडी का मतलब है कि भीतरी अज्ञानी जैसा--उसके भीतर भी गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है--और बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है, अहिंसक होता है, अहिंसा परमो धर्मः की तख्ती लगा कर बैठता है, सच्चरित्रवान दिखाई पड़ता है, सब नियम पालन करता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर का उसका व्यक्तित्व लेता है वह ज्ञानी से उधार और भीतर का व्यक्तित्व वही होता है जो अज्ञानी का है। यह जो पाखंडी व्यक्ति है, जिसको समाज नैतिक कहता है, यह व्यक्ति कभी भी, कभी भी उस दिशा को उपलब्ध नहीं होगा, जहां धर्म है। अनैतिक व्यक्ति उपलब्ध हो भी सकता है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पापी पहुंच जाते हैं और पुण्यात्मा भटक जाते हैं, क्योंकि पापी के दोहरे कारण हैं पहुंच जाने के। एक तो पाप दुखदायी है। प्रकट पाप बहुत दुखदायी है। उसकी पीड़ा है। वह पीड़ा ही रूपांतरण लाती है। दूसरी बात यह है कि पाप करने के लिए साहस चाहिए। समाज के विपरीत जाने के लिए भी साहस चाहिए। जो पाखंडी लोग हैं, वे मीडियाकर हैं, उनमें साहस बिलकुल नहीं है। साहस न होने की वजह से चेहरा वे वैसा बना लेते हैं, जैसा समाज कहता है--समाज के डर के कारण--और भीतर वैसे रहे आते हैं, जैसे वे हैं। अनैतिक व्यक्ति के पास एक करेज है, एक साहस है।