Tuesday, January 20, 2009

वक्त

आज कल हर कोई सिर्फ़ एक ही बात कहता है की क्या किया जाए वक्त ही नहीं है ये वक्त आख़िर चला गया आख़िर। घर है पर घर में रहने का वक्त नहीं , खाना है पर खाने का वक्त नहीं ,तकलीफ है पर रोने का वक्त नहीं , खुशियाँ हैं पर हसने का वक्त नहीं, हर तरफ़ हर कोई भाग रहा है साँस लेने की भी फुर्सत नहीं । कोई मर भी जाए तो क्रियाकर्म करने के लिए भी वक्त नहीं तीन दिन में ही निपटा दिया जाता है और किया भी क्या जाए जिन्दा लोगों के लिए ही जब वक्त नहीं तो उन्हें कौन देगा। बहुत कम किस्मत वाले हैं जो अपने लिए ख़ुद को वक्त दे पाते हैं नहीं तो बाकि लोग तो वक्त निकाल कर सिर्फ़ बीते हुए वक्त पर अफ़सोस करते हैं । ये भी सच है की घडी की सुइयां कभी बड़े छोटे या अमीर गरीब का भेदभाव नहीं करती वो तो सब के लिए एक समान ही चलती हैं फ़िर ये अन्तर कहाँ से हो जाता है ये वक्त किसी के लिए अच्छा और किसी के लिए बुरा क्यों बन जाता है । सच्चाई ये है की जो वक्त का ख्याल रखते हैं वक्त उन का ख्याल रखता है और वक्त बर्बाद करने वालों को वक्त भी बर्बाद कर देता है ।

1 comment:

  1. अंत में बस पछ्तावा ही हाथ लगता है ! जीवन में मस्त रहिए जी !

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