Thursday, January 22, 2009

शाम हुई

अहसांसों की एक बस्ती में

रहते रहते शाम हुई ,

सुबह सुनहरी बनी दुपहरी

ढलते ढलते शाम हुई ,

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ख्वाबों ने ख़त लिखे हजारों

उम्मीदों के नाम यहाँ ,

तन्हाई ही तन्हाई थी

पढ़ते पढ़ते शाम हुई ,

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गुलशन गुलशन भटकी यादें

मंजर मंजर भटकी आँखें ,

क़दमों में मंजिल की धुन थी

चलते चलते शाम हुई ,

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इंतजार के उत्सव में

सांसों की काया कोरी ,

आशाओं का कुमकुम चंदन

मलते मलते शाम हुई ,

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1 comment:

  1. शाम हुई तो क्या !

    सुबह भी होगी !

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