अहसांसों की एक बस्ती में
रहते रहते शाम हुई ,
सुबह सुनहरी बनी दुपहरी
ढलते ढलते शाम हुई ,
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ख्वाबों ने ख़त लिखे हजारों
उम्मीदों के नाम यहाँ ,
तन्हाई ही तन्हाई थी
पढ़ते पढ़ते शाम हुई ,
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गुलशन गुलशन भटकी यादें
मंजर मंजर भटकी आँखें ,
क़दमों में मंजिल की धुन थी
चलते चलते शाम हुई ,
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इंतजार के उत्सव में
सांसों की काया कोरी ,
आशाओं का कुमकुम चंदन
मलते मलते शाम हुई ,
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शाम हुई तो क्या !
ReplyDeleteसुबह भी होगी !