Wednesday, February 18, 2009

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ

सोचा करता बैठ अकेले,गत जीवन के सुख-दुख झेले,दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,होकर अपने प्रति अति निर्मम,उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,मानव की ही तो छाती है,लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

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